कार्बन क्रेडिट की संकल्पना क्योटो प्रोटोकॉल से उद्भूत हुई, संयुक्त राष्ट्र की पहल पर ग्लोबल वार्मिंग की चुनौती से निबटने हेतु 1992 में यूनाइटेड नेशंस फ्रेमवर्क कन्वेन्शन ऑन क्लाइमेट चेंज अस्तित्व में आया !
इसने जलवायु परिवर्तन के खतरों से निबटने हेतु एक अंतरराष्ट्रीय समझौते का मसौदा तैयार करने के लिए बातचीत शुरू की फतेह जापान के क्योटो शहर में 11 दिसंबर 1997 को हुए UNFCC के तीसरे सम्मेलन में क्योटो प्रोटोकॉल को स्वीकार किया गया
क्या है कार्बन क्रेडिट
कार्बन क्रेडिट एक तरह का सर्टिफिकेट है जो कार्बन उत्सर्जन करने का सर्टिफिकेट देता है. ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन घटाने के लिए इसे तैयार किया गया है. आप जितना कार्बन उत्सर्जन करेंगे, उतना ही ज्यादा आपको ऐसे प्रोजेक्ट में खर्च करने होंगे जो उत्सर्जन को घटाएं.
समाधान
इसका समाधान क्या है? क्या सभी उद्योग बंद कर देने चाहिए? ऐसा नहीं कर सकते क्योंकि दुनिया को चलाना जरूरी है और यह उद्योगों के बिना मुमकिन नहीं है. इसका एक हल यह हो सकता है कि अक्षय ऊर्जा के स्रोतों से उद्योगों को चलाया जाए. इसमें सोलर या विंड एनर्जी का सहारा लिया जा सकता है जिससे कि कोई कार्बन उत्सर्जन नहीं होता है. हालांकि पूरी दुनिया को अक्षय ऊर्जा स्रोत से अभी चलाना मुश्किल है क्योंकि इसमें कई वर्षों का वक्त लगेगा. ऐसे में अभी क्या किया जा सकता है?
कार्बन क्रेडिट पर विवाद
1997 में क्योटो प्रोटोकॉल में दुनिया भर के सभी देशों ने कार्बन उत्सर्जन घटाने पर सहमति जताई थी. उसी के हिसाब से कार्बन क्रेडिट की रूपरेखा तैयार की गई थी. इसके तहत एक सीमा तय की गई कि कंपनियां एक साल में कितना कार्बन उत्सर्जन कर सकती हैं. यूरोपीय संघ के देशों ने अपने कार्बन उत्सर्जन में बड़े स्तर पर कटौती करने का फैसला किया. इसके लिए कार्बन उत्सर्जन का लक्ष्य तय किया गया.
इसी हिसाब से उद्योगों को कार्बन के लक्ष्य दिए गए. इसमें एक दिक्कत ये आई कि दुनिया के कुछ हिस्से में देशों ने कार्बन उत्सर्जन में कटौती की जबकि कुछ देशों में उत्सर्जन जारी है. इससे उत्सर्जन में कटौती करने वाले देशों की लागत में बढ़ोतरी आई है. इसे देखते हुए कार्बन क्रेडिट पर कई लोग सवाल भी उठाते हैं. एक बात जरूर है कि कार्बन क्रेडिट के नाम पर कई परियोजनाओं में निवेश किया गया जिससे हमारे पर्यावरण को स्वस्छ बनाने में मदद मिली है.