इस आर्टिकल में हम जानेगे कि पत्ती किसे कहते है, पत्ती के कितने प्रकार और भाग होते है l साथ ही हम इस आर्टिकल में जानेगे कि पत्ती की संरचना किस प्रकार की होती है, इसके अलावा पत्ती के रूपान्तरण तथा पत्ती के कार्यों, और एकबीजपत्री तथा द्विबीजपत्री पत्ती में अन्तर के बारे में बात करेगे |
पत्ती या पर्ण किसे कहते है ? (What is Leaf)
पत्ती पोधों के तना के पर्वसन्धि (Internodes) से निकलती है जो पौधों का हरा पाशर्व (side) भाग होता है और इसे पौधों की भोजन की फैक्ट्री कहा जाता है। क्योकीं पौधों का पत्ती वाला भाग ही प्रकाश संश्लेषण (Photosynthesis) की क्रिया द्वारा भोजन अर्थात कार्बोहाइड्रेट का निर्माण करते है। पत्तियाँ या पर्ण चपटी और फैली हुई पर्वसन्धि पर विकसित होती है। ये अग्राभिसारी (आगे की तरफ देखते हुए – forward looking) क्रम में व्यवस्थित होती है। पत्ती के कक्ष में कली होती है जो शाखा बनाती है। पत्तियाँ क्लोरोफिल (Chlorophyll) (हरित लवक) के कारण हरे रंग की होती है, जिनमें छोटे-छोटे छिद्र होते है, जिनको स्टोमेटा (Stometa) कहा जाता है, जिसकी सहायता से गैसीय विनिमय (exchange of gases) का कार्य होता है।
नोट :- क्लोरोफिल या हरित लवक हरे पौधों में मौजूद प्राकृतिक यौगिक है जो उन्हें अपना रंग देता है। यह पौधों को सूर्य से ऊर्जा को अवशोषित करने में मदद करता है क्योंकि वे प्रकाश संश्लेषण की प्रक्रिया से गुजरते हैं। (Chlorophyll is the natural compound present in green plants that gives them their color. It helps plants to absorb energy from the sun as they undergo the process of photosynthesis.)
पत्ती की संरचना किस प्रकार की होती है (What is structure of Leaf)
पत्तियों को संरचना के आधार पर निम्न तीन भागों में बांटा गया है:-
पत्राधार या पर्णाधार (Leaf base)
यह पत्ती का सबसे निचला भाग होता है जो पत्ती को तना व शाखा से जोड़ता है, अर्थात तना और पत्ती के पत्रवृंत (Petiole) के जुड़ने वाले भाग को पत्राधार कहते यह पत्ती का आधारीय भाग है | इसके आधार पर एक या दो छोटी पत्तियों के समान प्रवर्ध होते है, जिन्हें अनुपर्ण कहते है। एक बीज पत्ती व लैग्यूमिनेसी कुल के पादपों में पर्णाधार फूला हुआ होता है ऐसे पर्णाधार को पर्णवृन्त तल्प कहते है।
पत्रवृंत (Petiole)
पत्राधार से एक लम्बा डंठल या डंडलनुमा भाग जैसी संरचना निकलती है जो पत्रफलक को आधार प्रदान करती है, इस लम्बे डंठल को ही पत्रवृंत कहते है। किन्तु कुछ पौधों में यह संरचना नहीं पायी जाती जैसे एक बीजपत्री पौधे। पत्रवृंत का मुख्य कार्य पत्रफलक (पर्णफलक) को सहारा देना और प्रकाश के लिए उठाये रखना होता है। पर्णफलक को उपयुक्त सूर्य का प्रकाश ग्रहण करने के लिए अग्रसर करता है | यह पत्ती के फलक को प्रकाश में उठाए रखता है ताकि अधिक-से-अधिक प्रकाश प्राप्त हो सके। यदि पादपो में पत्तियों के पर्णवृन्त उपस्थित हो तो उसे संवृन्त पत्ती और यदि उपस्थित नहीं हो तो अवृन्त पत्ती कहते है। जिन पत्तियों में पत्रवृन्त होता है, उन्हें सवृन्त (Petiolate) कहते हैं। जैसे-आम, पीपल आदि। बबूल में यह चपटे आकार के पर्णदल (lamina) में रूपान्तरित हो जाता है जिसे फायलोड़ (phyllodo) कहते है। जिन पतियों में पत्रवृन्त नहीं होता है, उन्हें अवृन्त (sessile) कहते हैं। जैसे- मक्का, गेहूँ आदि।
पत्रफलक ((Leaf blade या Lamina)
यह पत्ती का हरा, चपटा तथा फैला हुआ भाग होता है। इसके मध्य में पर्णवन्त से लेकर पत्ती के शीर्ष तक प्रायः एक मोटी शिरा होती है जिसे मध्यशिरा (midrib) कहा जाता है इस मध्यशिरा से दोनों तरफ पतली शिरायें निकलती है, जो आगे जाकर और छोटी और पतली शिराओं में विभक्त हो जाती है। ये पत्रफलक को कंकाल की भाँति दृढ़ता प्रदान करते हैं | इसका मुख्य कार्य पानी तथा भोज्य पदार्थों का परिवहन करना है। यह जल, खनिज लवण व भोजन आदि का स्थानांतरण का कार्य भी करती है। पत्तियों द्वारा प्रकाश-संश्लेषण, श्वसन एवं वाष्पोत्सर्जन क्रिया सम्पन्न होती है |
प्रर्णाग्र – पत्ती का अंतिम पतला नुकीला भाग प्रर्णाग्र कहलाता है।
शिराविन्यास
वर्ण में शिराओ व शिराकाओं के विन्यास को शिरा विन्यास कहते है, शिराविन्यास दो प्रकार का होता है।
(a) समान्तर शिराविन्यास: जब शिराएँ मध्य शिरा (midrib) के समान्तर व्यवस्थित होती है तो उसे समान्तर शिराविन्यास कहते है। उदाहरण: राकबीज पत्ती पादप।
(b) जालिका शिराविन्यास: जब शिराएँ मध्यशिरा से निकलकर पर्णफलक में एक जाल बनाती है तो इसे जालिका पत शिराविन्यास कहते है। उदाहरण: द्विबीज पत्री पादप।
पत्तियों को शिराविन्यास के आधार पर भी निम्न दो प्रकार में बांटा गया है:-
जालिकावत पत्ती – जिलाकावत पत्तियाँ उन पत्तियों को कहा जाता है जिनका शिरा विन्यास जालि के जैसा होता है। अधिकतर द्वीबीजपत्री पौधों में यह विन्यास दिखाई देता है। जैसे :- जामुन, आम, बरगद, पीपल आदि की पत्ती।
सामान्तर पत्ती – सामान्तर पत्ती उन पत्तियों को कहते है। जिनका शिरा विन्यास सामान्तर प्रकार का होता है। इस प्रकार का विन्यास एकबीजपत्री पौधों में दिखाई देता है। जैसे :- गेंहूँ, धान, केला आदि की पत्तियाँ।
एकबीजपत्री तथा द्विबीजपत्री पत्ती में अन्तर
एकबीजपत्री पत्ती | द्विबीजपत्री पत्ती |
यह समद्शिर्विक होती है। | यह पत्ती पृष्ठधारी होती है |
इनकी बाह्य त्वचा में बुलीफार्म कोशिकाएँ पाई जाती हैं। | इनकी बाह्य त्वचा में बुलीफार्म कोशिकाओं का अभाव होता है। |
स्पंजी पैरेन्काइमा के अवकाश छोटे होते है। | स्पंजी पैरेन्काइमा के अवकाश बड़े होते हैं। |
इसकी दोनों सतहों पर स्टोमेटा पाए जाते हैं। | इसकी केवल निचली सतह पर स्टोमेटा पाए जाते हैं। |
पत्ती कितने प्रकार की होती है ? (Type of Leaf)
पत्रफलक के कटाव के आधार पर पत्तियाँ दो प्रकार की होती हैं- सरल पत्ती एवं संयुक्त पत्ती।
सरल पत्ती किसे कहते है (What is Simple Leaf)
सरल पत्ती वह पत्ती होती है जिसका फलक बड़ा होता है तथा इस फलक में कटाव नहीं होते किंतु कुछ पत्तियों में कटाव होते हैं लेकिन वह कटाव मध्य शिरा या पत्रवृन्त तक तक नहीं जाते। जबकि इनमें केवल एक ही पर्ण फलक होता है तथा शाखा पर अग्रभिसारी क्रम में लगे होते है, उस पति को सरल पत्ती कहा जाता है। सरल पत्ती के उदाहरण:- आम, बरगद, पीपल, अमरुद आदि
संयुक्त पत्ती किसे कहते है (What is Compound Leaf)
संयुक्त पत्ती पत्ती का वह प्रकार होता है जिसमें पत्र फलक मैं कटाव विभिन्न जगह से मध्य शिरा तक पहुंचता है, इसलिए यह पत्र फलक कई पर्णकों में बंट जाता है। इसके एक शाखा पर पर्ण फलक एक साथ होते है, उस पति को संयुक्त पत्ती कहा जाता है। संयुक्त पत्ती के उदाहरण:- नींबू, नारंगी, नीम, गुलाब आदि।
संयुक्त पत्ती दो प्रकार की होती है –
(a) पिच्छाकार संयुक्त पत्ती: इस प्रकार की पत्ती में अनेक पर्णक एक मध्यशिरा पर स्थित होते है। उदाहरण – नीम आदि।
(b) हस्ताकार संयुक्त पत्ती: इस प्रकार की पत्ती में अनेक पर्णक एक ही बिंदु अर्थात पर्णवृन्त के शीर्ष से जुड़े रहते है। उदाहरण – शिल्ककोटन वृक्ष।
पूर्ण विन्यास (phyllotaxy)
पत्तियों के तने पर लगने की व्यवस्था को पर्णविन्यास (Phyllotaxy) कहते हैं। पादपो में यह तीन प्रकार का होता है।
(i) एकांतर पर्ण विन्यास: इस प्रकार के पर्णविन्यास में तने या शाखा पर एक अकेली पत्ती पर्णसन्धि पर एकान्तर क्रम में लगी रहती है। उदाहरण: गेहूं, गुडहल, सरसों, सूरजमुखी आदि।
(ii) सम्मुख पर्णविन्यास: इस प्रकार के पर्ण विन्यास में प्रत्येक पर्णसन्धि पर एक जोड़ी पत्तियाँ आमने सामने लगी रहती है। उदाहरण: अमरुद, केलोट्रोफिस (आक) आदि।
(iii) चक्करदार पर्णविन्यास: यदि एक ही पर्ण सन्धि पर दो से अधिक पत्तियाँ चक्र में व्यवस्थित हो तो उसे चक्करदार पर्ण विन्यास कहते है। उदाहरण – कनेर, एल्सटोनियम आदि।
पत्तियों का रूपान्तरण (Modification of Leaves)
पत्तियाँ कुछ विशेष कार्य सम्पादित करने पतियों का रूपांतर स्थिति मौसम के अनुसार अनुकूलन के हिसाब से हो जाता है:-
पर्ण कंटक/सुरक्षा के लिए (Leaf spines)
यह पौधे मरुस्थल या शुष्क स्थानों में उगते है, तो वहाँ जल की क्षति को रोकने के लिए पौधों की पत्तियाँ काँटों में परिवर्तित हो जाती है जिन्हे पर्णकंटक कहते है। इसमें पतियाँ काँटों या शूलों (spines) में रूपान्तरित होकर पोधे के लिए सुरक्षा का कार्य करती है। जैसे- बैर , केक्ट्स , नागफनी आदि।
पर्ण प्रतान (Leaf tendril)/ सहारा देने हेतु
पौधों को आरोहण प्रदान करने के लिए जब पौधों की पत्तियाँ लंबे पतले कुंडलित तारनुमा संरचना में बदल जाते हैं, जिसे प्रतान (Tendril) कहा जाता है और इस तरह की पत्तियों को पर्णप्रतान ((Leaf Tendril) कहते है। ये प्रतान अति संवेदनशील होते हैं और ज्योंहि वे किसी आधार के सम्पर्क में आते हैं, उसके चारों ओर लिपट जाते हैं। इस प्रकार वे पौधों को आरोहण में सहायता प्रदान करते हैं। उदाहरण :- मटर
पर्णाभवृन्त (Phyllode)
इसमें पर्णवृन्त अथवा रेकिस का कुछ भाग चपटा एवं हरा होकर पर्णफलक जैसा रूप ग्रहण कर लेता है यह स्थिति तब उत्पन्न होती है जब पौधों में प्रकाश संश्लेषण प्रभावित होने लगता है । इसे ही पर्णाभवृन्त कहते हैं। इस तरह इस प्रकार की पत्तियां प्रकाश संश्लेषण का कार्य करती है उदाहरण : ऑस्ट्रेलियन बबूल, कैर आदि।
घटपर्णी या घट रूपान्तरण (Pitcher)
इसे कीटभक्षी पौधा या किटाहारी पादप भी कहते है जो नाइट्रोजन की कमी पूरी करने के लिए कीटों का भक्षण करता है। इसमें पत्ती का पर्णाधार (Leaf base) चौड़ा, चपटा एवं हरे रंग का होता है। पर्णवृन्त (Petiole) प्रतान का, फलक (Leafblade) घटक (Pitcher) का तथा फलक शीर्ष (फलक का नुकीला हिस्सा) ढक्कन का रूप ले लेता है। इस प्रकार सम्पूर्ण पत्ती घटनुमा रचना में परिवर्तित हो जाती है। घट (Pitcher) की भीतरी सतह पर पाचक ग्रन्थियाँ (digestive glands) होती हैं, जिनसे पाचक रस निकलता है। जब कोई कीट आकर्षित होकर फिसलकर घट में गिर जाता है तो घट का ढक्कन स्वतः बन्द हो जाता है। कीट पाचक रस द्वारा पचा लिया जाता है। इस क्रिया द्वारा पौधे अपने नाइट्रोजन की आवश्यकता की पूर्ति करते हैं। जैसे- घाटपर्णी (Pitcher plant), डायोनिया , ड्रेसिरा , वीनस , प्लाई ट्रेप आदि।
ब्लेडर वर्ट (Bladderwort)
यूट्रीकुलेरिया (Utricularia) जैसे जलीय कीटभक्षी पौधों में पतियाँ अनेक छोटे-छोटे खण्डों में बँटी होती हैं। कुछ खण्ड रूपान्तरित होकर थैलीनुमा संरचना बनाते हैं। प्रत्येक थैली (bladder) में एक खोखला कक्ष (Empty chamber) होता है, जिसमें एक मुख होता है। इस मुख पर एक प्रवेश द्वार होता है जिससे होकर केवल सूक्ष्म जलीय जन्तु ही प्रवेश कर सकते हैं। थैली या ब्लैडर के अंदर पाचक एन्जाइम उन सूक्ष्म जन्तुओं को पचा डालते हैं।
खाद्य संचय हेतु रूपान्तरण
कुछ पादपों की पत्तियाँ भोजन संचय का कार्य करती है। उदाहरण – प्याज , लहसून आदि।
कुछ पौधों (जैसे – खजूर और सायकस आदि) में पत्तियां केवल मुख्य स्तम्भ पर ही लगी रहती है। ऐसी पत्तियाँ स्तम्भिक कहलाती है।
अधिकांश पौधों में पत्तियाँ मुख्य स्तम्भ और शाखाओं , दोनों पर पायी जाती है जैसे आम , पीपल , नीम आदि जिन्हें स्तम्भिक और शाखीय (cauline and ramal) कहते है।
इनके अतिरिक्त कुछ पौधों , जैसे प्याज , मूली आदि में पत्तियां समानित भूमिगत तने पर उत्पन्न होती है , जिन्हें मूलज (radical) कहते है।
नोट:- – संवहनी पौधों में पत्ती प्ररोह की एक महत्वपूर्ण संरचना होती है जो कि सीमित वृद्धि प्रदर्शित करती है। अधिकांश पौधों में पत्तियाँ प्राय: हरी , चपटी और पतली होती है और प्रकाश संश्लेषण और वाष्पोत्सर्जन का कार्य करती है। पत्ती को तने और शाखाओं की पर्वसन्धि से निकलने वाली एक पाशर्व उधर्ववृद्धि के रूप में परिभाषित किया जाता है। इनकी उत्पत्ति बहिर्जात होती है और अग्राभिसरी क्रम में उत्पन्न होती है। पत्ती की कक्ष में एक कक्षीय कलिका पायी जाती है जिससे शाखा का विकास होता है।
पत्तियों के कार्य क्या है ? (What are functions of leaves)
पत्तियाँ पौधे का महत्त्वपूर्ण अंग है। यह निम्नलिखित प्रमुख कार्य सम्पादित करती है-
पत्तियों क्लोरोफिल, जल, कार्बन डाइऑक्साइड तथा सूर्य प्रकाश की उपस्थिति में प्रकाश संश्लेषण की क्रिया करती है जिससे पौधों के लिए भोजन का निर्माण होता है। तथा मनुष्य और जीव जंतुओं के लिए प्राणवायु ऑक्सीजन का उत्पादन होता है ।
यह जल तथा घुलनशील भोज्य पदार्थों का पतियों से स्तम्भ तक संचरण में सहायता करती है।
पत्तियों का मुख्य कार्य गैसो का विनिमय करना होता है जो इनमें उपस्थित संरचना स्टोमेटा के द्वारा होता है। पत्तियाँ कार्बनडाई ऑक्साइड का अवशोषण करती है तथा ऑक्सीजन को वातावरण में छोड़ती है।
मरुस्थल के पौधों में पत्तियाँ काँटों में रूपातंरित होकर जल के वाष्पीकारण को रोककर जल संरक्षण तथा जानवरो से फूलों, फलों और कलियों की रक्षा करती है।
पत्तियाँ वाष्पीकरण के द्वारा पौधों से आवश्यकता से अधिक जल को बाहर निकालती है।
पत्तियों में निर्मित भोजन पौधों के अन्य भागो में जल में धूलित अवस्था में पहुँचता है। तथा आवश्यकता से अधिक भोजन को संग्रहित करने का कार्य पत्तियाँ ही करती है।
पत्तियाँ वाष्पोत्सर्जन की क्रिया करके पौधों की रक्षा सर्दी में पत्तियाँ गिराकर ऊष्मा को रोकती है और पतझड़ में पत्तियाँ गिराकर जल के वाष्पी कारण को रोककर पौधों में ऊष्मा और जल की मात्रा बनाये रखती है।
पत्तियाँ उत्स्वेदन (Transpiration) की क्रिया को नियंत्रित करती है।
प्रतन्तुओं में रूपान्तरित होने पर यह कमजोर पौधों को मजबूत आधार प्रदान करती है, तथा आरोहण में मदद करती है।
कीटभक्षी पौधों में पिचर (Pitcher), ब्लेडर (Bladder) आदि में यह रूपान्तरित होकर प्रोटीनयुक्त पोषण में सहायता करती है।
कुछ पतियाँ वर्धी प्रजनन (Vegetative reproduction) एवं परागण (Pollination) में सहायता करती हैं।
कुछ पत्तियाँ भोजन संग्रह (Food storage) का कार्य भी करती हैं।
बीजधारी पादपों में पत्तियों के प्रकार (types of leaves in Hindi)
पत्ती तने का मुख्य पाशर्व भाग है और बीजधारी पादपों में इनकी स्थिति , उत्पत्ति , कार्य और संरचना के आधार पर इनको निम्नलिखित प्रकारों में वर्गीकृत किया जा सकता है –
1. बीजपत्रिय पर्ण (cotyledonary leaves) : अंकुरित होने वाले पौधों की यह सबसे पहली पर्ण होती है। कुछ द्विबीजपत्री पौधों में बीजों के अंकुरण के समय इनके बीजपत्र भूमि के ऊपर निकल आते है और हरे रंग का पत्तिनुमा संरचना में परिवर्तित हो जाते है। इस प्रकार की पत्तियां बीजपत्रीय पर्ण या भ्रूणीय पर्ण (embryonal leaves) कहलाती है। सत्य पर्णों के विकसित होने तक ये भोजन निर्माण का कार्य करती है और उसके पश्चात् झड़ कर गिर जाती है।
2. अधोपर्ण अथवा शल्क पर्ण (cataphylls leaves) : ये सफ़ेद , भूरे अथवा हरे रंग की अवृंत और झिल्लीनुमा संरचनाएं होती है। ये मुख्यतः कलिकाओं और भूमिगत तनों में पायी जाती है। इनका प्रमुख कार्य पौधों के कोमल भागों को सुरक्षा प्रदान करना अथवा खाद्य पदार्थों का संचय होता है।
3. अधिपर्ण (hypsophylls leaves) : ये हरी या रंगीन (लाल , पीली , नारंगी आदि) पर्णील संरचनाएँ होती है जो मुख्यतः पौधों के अग्र भागों में पायी जाती है , जिनके कक्ष में एकल पुष्प अथवा पुष्प गुच्छ विकसित होते है। इसलिए इन्हें सहपत्र (bract) भी कहते है। कभी कभी पुष्प वृंत पर भी इनका निर्माण होता है और सहपत्रक (bracteole) कहलाती है। ये कीटों को आकर्षित कर परागण में मदद करती है।
4. प्रोफिल्स (prophylls) : ये आवृतबीजी पौधों की प्रथम पत्तियाँ होती है , जो पाशर्व शाखाओं पर उत्पन्न प्रथम केटाफिल्स है। इन्हें सहपत्रिका भी कहते है। उदाहरण – बीलपत्र में ये दो काटों के रूप में दिखाई देती है।
5. पुष्पी पत्र (floral leaves) : पुष्प एक रूपांतरित प्ररोह है और इसके पुष्पी उपांग जैसे – बाह्यदल , दल , पुंकेसर और अंडप सभी पर्णील उपांग कहलाते है। आर्बर के अनुसार पर्णील उपांग , फिल्लोम (phyllome) कहलाते है।
6. सामान्य पर्ण (foliage leaves) : ये पत्तियाँ तने पर पाशर्व उपांगों के रूप में लगी रहती है। ये हरे रंग की चपटी और प्रकाश संश्लेषी संरचनाएँ होती है। ये अवृंत संरचनाएं होती है और प्ररोह का मुख्य भाग प्राय: इन पत्तियों द्वारा ही निर्मित होता है।
पत्ती की उत्पत्ति और परिवर्धन (origin and development of leaf in Hindi)
पत्ती की उत्पत्ति तने अथवा शाखाओं के ऊपरी सिरे के पास स्थित कोशिकाओं के विभाजन से निर्मित पर्ण आद्यकों (leaf primordia) के रूप में होती है। पर्ण आद्यकों का विकास पर्ण विकास के अनुसार प्ररोह शीर्षस्थ विभाज्योतक के पाशर्व पर नियमित क्रम में होता है। पत्ती के विकास की विभिन्न प्रावस्थाओं का अध्ययन निम्नलिखित शीर्षकों के अंतर्गत किया जा सकता है।
1. समारम्भन और शीर्ष भिन्नन (initiation and early differentiation in hindi) :
गिफोर्ड और टेपर के अनुसार पर्ण समारम्भन के स्थान पर उपस्थित विभाज्योतकी कोशिकाओं में आर.एन.ए (RNA) की मात्रा बढ़ जाती है। समारम्भन के प्रथम चरण में शीर्षस्थ विभाज्योतक की पाशर्व पर स्थित परिधीय कोशिकाओं में परिनतिक विभाजन होता है। विभिन्न पौधों में पर्ण आद्यकों के विभेदन में भाग लेने वाली कोशिकाओं की संख्या और स्थिति अलग अलग हो सकती है। सामान्यतया पर्ण समारम्भन से सम्बन्धित विभाजन ट्यूनिका की दूसरी या तीसरी परत की कोशिकाओं में होते है लेकिन घासों में ट्यूनिका की सबसे बाहरी परत में परिनतिक विभाजनों से पर्ण आद्यक का समारम्भन होता है। प्रारंभिक परिनतिक विभाजनों के फलस्वरूप ट्यूनिका से व्युत्पन्न कोशिकाओं और समीपवर्ती कार्पस की कोशिकाओं में परिनतिक और अपनतिक विभाजनों के फलस्वरूप शीर्षस्थ विभाज्योतक के पाशर्व में एक उभार और उधर्व विकसित होता है जिसे पर्ण बप्र कहते है। आच्छद पर्णाधार युक्त पत्तियों में प्रारंभिक विभाजन पर्ण आद्यक के पाशर्व में भी होते है , जिसके फलस्वरूप पर्ण आद्यक शीर्षस्थ विभाज्योतक को लगभग पूरी तरह घेर लेता है। इसके पश्चात् पर्ण आद्यक की शेष वृद्धि शीर्षस्थ विभाज्योतक के अतिरिक्त उपान्तीय , अन्तर्वेशी अभ्यक्ष और प्लेट विभाज्योतकों की सक्रियता के फलस्वरूप होती है। इन विभाज्योतकों में विभाजन उत्तरोतर या युगपत होते है जिनसे विभिन्न प्रकार की पत्तियों का विकास होता है।
2. शीर्षस्थ और अंतर्वेशी वृद्धि (apical and intercalary growth in hindi) : अधिकतर द्विबीजपत्रीयों की पत्ती का आद्यक पर्णफलक रहित शंकु के रूप में होता है , जिसे पर्ण अक्ष कहते है। इसके पश्चात् पर्ण आद्यक की लम्बाई में वृद्धि आद्यक के शीर्ष पर उपस्थित शीर्षस्थ विभाज्योतक द्वारा होती है। इस विभाज्योतक की सक्रियता कुछ समय पश्चात् समाप्त हो जाती है। इसके पश्चात् शीर्ष से कुछ दूरी पर स्थित अन्तर्वेशी विभाज्योतक कोशिकाओं के विभाजन और दीर्घन से आद्यक की वृद्धि होती है। एकबीजपत्रियों मे अन्तर्वेशी वृद्धि द्विबीजपत्रियों की तुलना में अधिक होती है।
3. उपांतीय वृद्धि (marginal growth) : पर्ण आद्यक की लम्बाई में वृद्धि के साथ साथ पत्ती के अक्ष के किनारे अथवा उपान्तो पर स्थित कोशिकाओं में तेजी से विभाजन होते है जिसके परिणामस्वरूप पत्ती में एक मध्यशिरा और दो पंख जैसे पर्ण फलक विभेदित हो जाते है। पर्ण आद्यक की यह पाशर्व या उपांतीय वृद्धि उपांतीय विभाज्योतक की सक्रियता द्वारा होती है। पर्ण आद्यक के आधारी भाग में उपान्ति विभाज्योतक निष्क्रिय होता है जिसके कारण पाशर्व वृद्धि नहीं होती और यह भाग पत्ती के वृंत में विकसित होता है। उपांति विभाज्योतक को दो भागों में विभेदित किया जा सकता है –
(i) उपांतीय प्रारंभिक (marginal initials)
(ii) उप उपांतीय प्रारंभिक (sub marginal initials)
इन दोनों प्रारम्भिक कोशिकाओं से पत्ती के निश्चित भाग विकसित होते है।
उपान्तीय प्रारंभिक में मुख्यतः अपनतिक विभाजन होते है जिससे पत्ती की ऊपरी और निचली अधित्वक का निर्माण करती है। कुछ एकबीजपत्री पर्णों में यदा कदा उपांति कोशिकाओं में परिनत विभाजन भी होता है जिनसे अधित्वक के अलावा पत्ती के आंतरिक ऊत्तक भी विकसित होते है।
उप उपान्तीय प्रारंभिक जो उपांतीय प्रारम्भिक के निचे स्थित होती है। प्राय: सभी तलों में विभक्त होकर पर्ण फलक के आंतरिक ऊतकों का निर्माण करती है। उप उपांतीय प्रारंभिक कोशिकाओं की सक्रियता हमेशा एक सी नहीं रहती है। अत: पर्ण फलक की वृद्धि में विविधताएँ उत्पन्न होती है।
4. अभ्यक्ष वृद्धि (adaxial growth) : पर्ण आद्यक की लम्बाई में वृद्धि के साथ साथ इसकी अरीय मोटाई में भी वृद्धि होती है। अरीय वृद्धि पत्ती के अभ्यक्ष अधित्वक के नीचे स्थित विभाज्योतकी पट्टियों के द्वारा होती है। इस विभाज्योतक की कोशिकाओं में परिनतिक विभाजन होते है जिनसे पत्ती की मोटाई में वृद्धि होती है। पर्णवृंत और मध्यशिरा की मोटाई भी इसी विभाज्योतक की सक्रियता का परिणाम होता है।
5. प्लेट विभाज्योतक (plate meristem) : जब उपांतीय विभाज्योतक की सक्रियता समाप्त हो जाती है , तब पत्ती के पर्ण फलक के आमाप में वृद्धि प्लेट विभाज्योतक द्वारा होती है। इस विभाज्योतक में अनेक पर्ण मध्योतक कोशिकाओं के समानांतर स्तर होते है। ये कोशिकाएं अपनतिक विभाजनों द्वारा पत्ती के पृष्ठीय क्षेत्रफल में वृद्धि करती है। इस विभाज्योतक के विभाजनों के फलस्वरूप पत्ती अपनी परिपक्व अवस्था में पहुँचती है।
6. संवहन ऊत्तक का विकास (development of vascular tissue in hindi) : द्विबीजपत्रियों की पत्ती में संवहन तंत्र का परिवर्धन मध्य शिरा में प्रोकेम्बियम के विभेदन से प्रारंभ होता है। प्रोकेम्बियम का विभेदन अग्राभिसारी क्रम में होता है और इसकी सतता अक्ष के प्रोकेम्बियम से बनी रहती है। पर्ण फलक के विस्तार के साथ साथ साथ मध्य शिरा से प्रथम श्रेणी की पाशर्व शिराएँ विकसित होती है। इसके पश्चात् दूसरी , तीसरी और अन्य उच्च श्रेणी की पाशर्व शिराएँ उत्तरोतर क्रम में विकसित होती है जिसके फलस्वरूप जालिकारुपी शिरा विन्यास बनता है। इस पाशर्व शिराओं का विभेदन पत्ती की अन्तर्वेशी वृद्धि के समय होता है। शिराओं के निर्माण में भाग लेने वाली प्रारंभिक कोशिकाओं की संख्या उत्तरोतर क्रम में (प्रथम श्रेणी → द्वितीयक श्रेणी → तृतीय श्रेणी) कम होती जाती और सबसे अंतिम श्रेणी की शिरिका केवल एकपंक्तिक रह जाती है। विभिन्न श्रेणी की शिराएँ सतत विकसित होती है। जाइलम और फ्लोयम ऊतकों का विभेदन अग्राभिसारी क्रम में होता है और फ्लोयम का विभेदन जाइलम से पहले होता है।
एक बीजपत्रियों की पत्ती (उदाहरण ट्रिटिकम ) में लम्बी पाशर्व शिराओं का प्रोकेम्बियम स्टैंड अग्राभिसारी क्रम में विकसित होता है जबकि छोटी शिराओं का प्रोकोम्बियम तलाभिसारी क्रम में विकसित होता है। अनुप्रस्थ शिराएँ जो पाशर्व शिराओं को परस्पर जोडती है , अंत में बनती है और तलाभिसारी क्रम में विकसित होती है।
स्मार्ट फैक्ट्स:
आशुपाती (Caducous) पत्तियाँ प्रायः बनने के उपरान्त ही पौधे से गिर जाती हैं।
पर्णपाती (Deciducous) पत्तियाँ एक विशेष ऋतु तक पौधे में लगी रहती है। और इसके बाद झड़ जाती है। उदाहरण: आम, पीपल, बरगद आदि।
जालिका रूपी (Reticulate) शिराविन्यास में शिराएँ एवं उपशिराएँ एक अनियमित जाल के रूप में फैली रहती है। उदाहरण: द्विबीजपत्री पौधे। समानान्तर (Parallel) शिराविन्यास में शिराएँ एक दूसरे के समानान्तर होती हैं। उदाहरण: एकबीजपत्री पौधे।